मानवों से आज मानव हो रहा बेहाल है 


भूल मानव धर्म अपना दुष्ट चलता चाल है 


कुछ व्यवस्था ही बनी ऐसी कि हैं भयभीत सब 


रक्षकों का यूँ तो कहने को बिछा इक जाल है 


यूँ अकड़ कर चल रहे मनो खुदा हैं बस वही 


हैं भली टांगें मगर टेढ़ी ही टेढ़ी चाल है


बेबसी का घोंट कर दम खून सारा पी लिया


पेट काटे जो पराये आज वह प्रतिपाल है


साथ देने की सदा सुनकर तो आए वह मगर


सुर में सुर कैसे मिले जो बेसुरी सी ताल है


शक भी कोई क्या करे 'अर्पित' भी अर्पित हो गया


एक दाना ही नहीं काली ही सारी दाल है .


--------------अर्पित अनाम----------

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