मस्त आँखों के पियो जाम ****************************** ******** पीके आँखों से लगी दिल की बुझा लेता हूँ माशुका तेरी कसम, तुझको दुआ देता हूँ तेरी मदमस्त निगाहों ने कर्म मुझपे किया ज़िन्दगी भर न अपना मुझे कुछ होश रहा पीके मैं जाम नशीले तेरे, जी लेता हूँ माशुका तेरी कसम, तुझको दुआ देता हूँ छोड़ दो पीना शराब अब तो ये मेरे यारो मस्त आँखों के पियो जाम नशीले, यारो अब कहां सब्र मुझे, मैं तो पिए लेता हूँ माशुका तेरी कसम, तुझको दुआ देता हूँ तेरी आँखों में मिला मुझको मिरे गम का इलाज अब न 'अर्पित' सिवा तेरे मिरा कोई आज जानकर तुझको मसीहा, ये दवा लेता हूँ माशुका तेरी कसम, तुझको दुआ देता हूँ . ------------------------------ ----------------अर्पित अनाम
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Showing posts from July, 2012
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हम जियें भी तो जियें कैसे बताओ 'अर्पित' ********************************************** बेवफा छत पे मुझे देखने आया न करो दिल को अब और मिरे यूँ तो सताया न करो प्यार आता है मुझे जिसपे, वो अपनी सूरत मुझको छुप-छुप के यूँ तरसा के दिखाया न करो जब नहीं पास तुम्हारे, मिरे ज़ख्मों का इलाज़ दुखती रग को तो मिरी छेड़ के जाया न करो हम जियें भी तो जियें कैसे बताओ 'अर्पित' उनके कूचे में, वो कहते हैं कि आया न करो. ================================अर्पित अनाम
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आरजू है बस यही **************************** खुश रहोगे तुम तो मैं भी खुश रहूँगा, ऐ सनम देखकर चेहरा तुम्हारा मैं जियूँगा, ऐ सनम जां निकल जाती है मेरी देखकर तुमको उदास दुख न इक पल भी तुम्हारा सह सकूंगा, ऐ सनम चाँद सा चेहरा, गुलाबी होंठ, ज़ुल्फें रेशमी और भी निखरें, दुआ दिल से करूंगा, ऐ सनम आरजू है बस यही 'अर्पित' कि तुम सुख से रहो जाम सेहत के तुम्हारी मैं भरूँगा, ऐ सनम +++++++++++++++++++++++++++++ अर्पित अनाम
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मान जाना याद है ****************************** ** तेरा अंदाज़ ऐ सनम वो कातिलाना याद है और रह-रह कर तिरा वो मुस्कराना याद है बैठना मिलजुल के तेरा, रूठ जाना फिर तिरा रूठ कर फिर जाने-जाना मान जाना याद है याद आती हैं मुझे रह-रह के तेरी शोखियाँ छेड़कर मुझको वो तेरा खिलखिलाना याद है एकदम खामोश हूँ, तब पास मेरे बैठना और गुमसुम होके यूँ, जी को जलाना याद है देखना, आदाब करना, मुस्कराना, ऐ सनम और आंचल में तिरा वो मुंह छुपाना याद है तोडकर गुल को मसलना, फिर उठाकर फेंकना दिल पे 'अर्पित' मुझको उनका ज़ुल्म ढाना याद है ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ~~अर्पित अनाम
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हो तेरा इन्साफ़ 'अर्पित' एक सा सब के लिए ++++++++++++++++++++++++++++++++ ढूँढने से क्या मिलेगा वो किसी इन्सान को कर कोई तू काम ऐसा, खुश करे भगवान को मन्दिरो-मस्जिद दुखी हैं यूँ की उनके नाम पर मिल गई है छूट नर संहार की शैतान को सोचिये गिरिजाघरों में सर झुकाकर क्या मिला और गुरु द्वारों में जाकर क्या मिला श्रीमान को कर भला औरों का, तेरा भी भला हो जाएगा तू अगर इन्सान है तो त्याग दे अभिमान को हो तेरा इन्साफ़ 'अर्पित' एक सा सब के लिए निर्धनों को दे वही इन्साफ़ जो धनवान को **********************************************अर्पित अनाम
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किस तरह ज़िन्दा हो तुम ****************************** ********** बेवफाई का गिला हमने जो उनसे कर दिया दोष इसका हाय, हम पर ही उन्होंने धर दिया मुस्करा कर तो कभी चुप साध कर प्रतिवाद में मेरे हर आरोप का खंडन उन्होंने कर दिया दिल की चोरी और उस पर सीनाज़ोरी, ऐ सनम आपने तो मात सबको इस कला में कर दिया प्यार से मरहम लगाने की जगह बेदर्द ने, लेके चुटकी में नमक, ज़ख्मों में मेरे भर दिया आप की नज़रों में ठहरा एक मुज़रिम इसलिए आपने मुझको गिरफ्तार-ए-मुहब्बत कर दिया मुझको हैरत है की 'अर्पित' किस तरह ज़िन्दा हो तुम इश्क में पड़कर जो तुमने ओखली में सर दिया . ++++++++++++++++++++++++++++++ +++++++++ अर्पित अनाम
इस जहाँ में अब नहीं कोई भी तो 'अर्पित' तेरा
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सामने बैठी हो क्यों तुम दिल दुखाने के लिए बात ही कोई न हो जब मुस्कराने के लिए दिल तो करता है मेरा अब फोड़ लूँ मैं अपना सर और मिल जाये कहीं से ज़हर खाने के लिए तुम ही कहती थी कभी मुझको न यूँ देखा करो छोड़ दो मुझको अकेला टूट जाने के लिए झुकना उठना हाथ तेरे ही तो था ऐ संगदिल सब लुटा, अब क्या रहा है सर उठाने के लिए नाज़ था जिसपर मुझे, इक प्यार का सागर था जो खाई है सौगन्ध उसने यूँ सताने के लिए इस जहाँ में अब नहीं कोई भी तो 'अर्पित' तेरा चल किसी दरिया में अब तो डूब जाने के लिए --------------------------------------------------अर्पित अनाम --------------------------------
नादान आजकल पाखण्ड का ज़माना
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*************** शीशे को तोड़ देंगे बेरहम दुनिया वाले जीना अगर है तुझको पत्थर जिगर बनाले हो नेक आदमी तो कहते हैं लोग पागल शैतान बन जा तू भी माथे तिलक लगाले नादान आजकल है पाखण्ड का ज़माना तू भी जटा बढ़ा ले, धूनी कहीं रमा ले इन्सान बनके काफ़िर कहला रहा है क्यों तू तस्बीह भी घुमाले, कृपाण भी उठाले अपनी ही जान देने में क्या है अक्लमंदी उन ज़ालिमों को 'अर्पित' उनकी तेरह सताले -------------------------------------------------अर्पित अनाम
मत रोको तुम उनको
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सर मेरा दीवारों से टकराने दो इस दिमाग को अब तो बस फट जाने दो जिंदा रह के आखिर क्या कर पाऊंगा अब न रोको मुझको तुम मर जाने दो ख़ुशी नहीं जब कोई भी अब शेष रही गीत विरह के गाता हूँ तो गाने दो तुमको क्या है उनको क्यों कुछ कहते हो गम का मेरे उनको जश्न मनाने दो मिलता है गर चैन उन्हें कुछ 'अर्पित' यूँ मत रोको तुम उनको, खूब सताने दो . ***** अर्पित अनाम